जहाँ स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा- स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज 

महाकुम्भनगर। झूंसी स्थित सेक्टर अठारह अन्नपूर्णा मार्ग प्रभु प्रेमी संघ कुम्भ शिविर में जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने श्रीमद्भागवत कथा के तृतीय दिवस बताया कि धर्म अभ्युदय और श्रेयस कारक है। हमारी संस्कृति में कामादि पुरुषार्थ भी मान्य है, उनकी निन्दा नही है। किन्तु, काम संतुलित, नियंत्रित और मूल्य आधारित होना चाहिए। धर्म की सिद्धि कैसे हो? इसका समाधान बताते हुए ‘पूज्य प्रभुश्री’ कहते हैं कि शरीर ही धर्म सिद्धि का एक मात्र साधन है। देवताओं और पितरों की सामर्थ्य सीमित है, क्योंकि उनके पास शरीर नही है, वो स्वर्ग के अधिकारी तो हैं किन्तु मोक्ष प्राप्त नही कर सकते। अनन्तता के उपार्जन हेतु हमें निरन्तर शुभ कर्म करते रहना चाहिए। धर्म की एक विशेषता यह भी है कि यह सन्त-सत्पुरुषों के सान्निध्य में ही जागृत होता है। मन की प्रवृत्तियाँ स्वभावतः पतन की है, वह हेय वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है, इसलिए धर्म का अवलम्बन लीजिए, क्योंकि धर्म से ही जीवन में दिव्यता का आरोहण होता है।
महर्षि पतञ्जलि कहते हैं – ‘वीतराग विषयं वा चित्तम् ..’। वीतराग महापुरुषों के संसर्ग में रहने से अथवा उनका अनुसरण, अनुगमन करने से कामरूपी विषयों का शमन हो जाता है। इसलिए अपने चित्त के प्रारम्भ में जो गुरू स्थित है, उसको जाग्रत कर लें। अपने चित्त को स्थिर करने के लिए योगियों का आश्रय लेने की बात कही गई है। वीतराग का अर्थ होता है – वह योगी जिन्होंने योग साधना के द्वारा अपने चित्त को राग व द्वेष आदि क्लेशों से मुक्त कर लिया है। शिक्षा संस्कारित करती है और विद्या पूर्णता प्रदान करती है। समता लाती है, अनुशासित करती है, सही दिशा प्रदान करती है। ब्रह्मा जी भगवान नारायण के प्रथम संतान हैं और इस धरती का पहला कर्म उन्होंने “तप” किया। आज के युग में परिवार की परिभाषा बहुत संकुचित है। परिवार परस्पर प्रीति और सहयोग से चलता है।  जहाँ स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा होगी। वहाँ पारिवारिक मूल्य स्वतः ही ध्वस्त हो जायेंगे। कई बार अपमान, तिरस्कार, अवहेलना आदि जीवन की उन्नति का भी कारण बन जाता है। इसलिए सबका ‘मन’ सम्भाल कर रखें। महाराज मनु और शतरूपा के संतानों की कथा हमें नीति और नियमों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। आपके जप और साधन कभी न छूटे। उत्तानपाद का आशय मन की दुर्बलता से है। जीवन में जब नीतियों का स्थान रुचियाँ ले लेती हैं तो व्यक्ति उत्तानपाद की भाँति किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। बालक ध्रुव के जीवन में गुरु के रूप में देवर्षि नारद के आगमन की कथा सुनाते हुए गुरु तत्व की महनीयता का प्रतिपादन किया। राजा प्रियव्रत की कथा में प्रियव्रत का अर्थ ‘प्रियता के व्रत’ से है। हमारी अभिव्यक्ति और कार्यकलाप इस प्रकार हो कि हमसे किसी का अहित न हो अथवा हम किसी को आहत न करें।

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