सम्भवामि युगे युगे

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भारत में भारतवर्ष के मथुरा नगर में हुआ था। कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में हुआ था, जिसे हम जन्माष्टमी के नाम से जानते है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(गीता 4/7,8)
जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ (अवतरित होता हूँ)| साधुजनों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए, मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

उनके पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम देवकी था। उनका जन्म कंस के कारागार में हुआ था, क्योंकि कंस ने भविष्यवाणी सुनी थी कि देवकी का आठवां पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा। कृष्ण का जन्म होते ही वासुदेव ने उन्हें यमुना नदी पार करके गोकुल में अपने मित्र नंद और यशोदा के पास पहुंचा दिया। यहीं पर कृष्ण का पालन-पोषण हुआ और उन्होंने बाल लीलाओं से सभी का मन मोह लिया। गोकुल में रहकर कृष्ण ने अनेक चमत्कारी कार्य किए और बाल्यकाल से ही अपनी दिव्यता का परिचय दिया। कृष्ण का वात्सल्य बाल्यकाल में गोकुल और वृंदावन में देखने को मिलता है, जहां उन्होंने माता यशोदा, नंद बाबा, और गोपियों के साथ अपना जीवन बिताया।कृष्ण का अपनी माता यशोदा के प्रति प्रेम और माता का उनके प्रति वात्सल्य अत्यंत मार्मिक और मनमोहक है। यशोदा कृष्ण को अपने पुत्र के रूप में अत्यधिक स्नेह करती थीं और कृष्ण भी उनके प्रति गहरे भाव से जुड़े हुए थे। बाल कृष्ण की बाल लीलाएँ, जैसे माखन चुराना, गोपियों को परेशान करना, और उनके साथ नटखट हरकतें करना, यशोदा के साथ उनके मधुर वात्सल्य को दर्शाता है। विशेष रूप से वह दृश्य, जब यशोदा कृष्ण को अपने प्यार भरे डांट के साथ अनुशासन में बांधती हैं, यह वात्सल्य का प्रतीक बन गया है। गोपियों उन्हें “कन्हैया” कहकर पुकारती थीं और उनके प्रति अनन्य प्रेम और स्नेह दिखाती थीं। कृष्ण भी उन्हें प्यार से परेशान करते थे, माखन चुराते थे, और उनके साथ रासलीला में भाग लेते थे। यह प्रेम वात्सल्य के साथ-साथ भक्ति का भी एक रूप है, जहां गोपियाँ कृष्ण को भगवान और प्रिय दोनों मानती थीं। कृष्ण की लीला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण गोवर्धन पर्वत की लीला में देखा जा सकता है, जहां कृष्ण ने गोप-गोपियों और गोकुलवासियों को इंद्र के कोप से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाया। उन्होंने सभी को अपने संरक्षण में लिया और उनके प्रति अपने अनंत प्रेम और वात्सल्य का परिचय दिया।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत सनातन धर्म में जन्माष्टमी मनाने की मान्यता दो प्रकार से है-स्मार्त और वैष्णव। जो गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हैं स्मार्त कहलाते हैं और संन्यासी वैष्णव कहे जाते है।ज्योतिषशास्त्र में इसका उल्लेख है-

अष्टमी कृष्णपक्षस्य रोहिणीऋक्षसंयुता/भवेत् प्रोष्ठपदे मासि जयन्ती नाम सा स्मृता ।

(बृहद्ज्योतिस्सार मिश्रप्रकरण 7)

स्मार्तों के लिए मथुरा में रोहिणी नक्षत्र से युत भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अर्द्धरात्रि व्याप्ति में जन्माष्टमी मनाई जाती है। यदि अष्टमी अर्द्धरात्रि पर दोनों दिन व्याप्ति हो और रोहिणी नक्षत्र केवल पहले दिन हो तो जन्माष्टमी अष्टमी पहले दिन मनाई जाती है अन्यथा दूसरे ही दिन मनायी जाती है। यहां मध्यरात्रि को चंद्रोदय व्यापिनी भी कहा जा सकता है, क्योंकि अष्टमी के दिन चंद्रोदय अर्द्धरात्रि में ही होगा। वैष्णवों में नवमी विद्धा अष्टमी को ही महत्व दिया गया है, नक्षत्र को नहीं। अतः वैष्णवों में यह पर्व नवमी युता अष्टमी को मनाया जाता है।

नभस्यमासे त्वसिताष्टमी या जन्माष्टमी तां समुदाहरन्ति। सा चार्धरात्राभिगता विधैया निशीथयोगादुभयोः परव ।।

(बृहद्ज्योतिस्सार मिश्रप्रकरण 8)

भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को श्री कृष्णजन्माष्टमी कहते है। वह अर्धरात्रिव्यापिनी ग्राह्म है। यदि दोनों दिन अर्धरात्रिव्यापिनी मिले तो दूसरे दिन व्रत करना उचित है। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में मध्य रात्रि में भगवान् कृष्ण का जन्म मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ था। चूँकि कृष्ण ईश्वरीय शक्तियों से संपन्न एक अवतारी पुरुष थे, इसलिए जन्म लेते ही उन्होंने अपने अलौकिक चमत्कार दिखाना प्रारंभ कर दिया, जिससे लोगों को विश्वास हो जाए कि वे किसी विशेष उद्देश्य से अवतरित हुए हैं।

श्रीकृष्ण जन्म के अनेक वर्षों पूर्व ही कंस के लिए भविष्यवाणी हो गई थी कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान ही कंस के सर्वनाश की कारक बनेगी। तदनुसार ही श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और वे अपनी अलौकिक शक्तियों के द्वारा कारागार से बाहर निकल गए, जिसकी भनक भी किसी को नहीं लगी। बाद में भगवान् कृष्ण ने कंस का संहार कर मथुरा को संकटमुक्त किया। भगवान् कृष्ण ने अपने जीवन में अनेक अलौकिक एवं कठिन कार्यों को संपन्न किया, जिसके कारण उनकी ईश्वरीय छवि दिनोदिन निखरती गई और वे भगवान् विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्रीकृष्ण की एक और विशेषता गो-सेवा और गो-प्रेम था। इससे प्रतीत होता है कि कृष्ण हमारी कृषि प्रधान संस्कृ ति के अधिष्ठाता एवं उन्नायक रहे हैं। कृष्ण ने ही अपने सखा उद्धव के माध्यम से गोपियों को एकेश्वरवाद का संदेश दिया था, जिसके आधार पर आदि गुरु शंकराचार्य ने अद्वैत का सिद्धांत प्रतिपादित किया। । धर्मशास्त्र में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को किया गया व्रत हजारों एकादशी व्रत के समतुल्य पुण्यदायी कहा गया है।

श्रीकृष्ण ने मानवता को अद्भुत ज्ञान दिया जो की महाभारत के भीष्म पर्व से उद्धृत है ,गीता सनातन हिंदू धर्म का पारिभाषिक ग्रंथ है, गीता का अमर सन्देश सार्वकालिक और सार्वदेशिक है। भारतीय विचारधारा के निर्माण में गीता की शिक्षा की महती भूमिका रही है। इसके द्वारा मानव समाज को दी गयी धार्मिक सहिष्णुता की शिक्षा आज भी अनुकरणीय है। यह आद्योपान्त धार्मिक सहिष्णुता की भावना से ओतप्रोत है जो हिन्दुत्व की प्रमुख विशेषता है। इसका उपदेशक न तो किसी धार्मिक आन्दोलन का नेता है और न ही उसने किसी धार्मिक सम्प्रदाय की स्थापना किया है। इसका उपदेश किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए भी नहीं है। उसकी शिक्षा सार्वभौम है, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, देश-काल परिस्थिति की सीमाओं से परे है। गीता की सभी उपासना-पद्धतियों के साथ सहानुभूति है। इसका उपदेशक स्पष्टतः यह घोषित करता है कि, ‘जो भक्त जिस देवता को श्रद्धा से पूजना चाहता है, मैं उसकी श्रद्धा को उसी में दृढ़ करता हूँ और यह उसी से अपने इच्छित भोगों को प्राप्त करता है’। इस प्रकार आज के सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश में, जहाँ मजहब एवं गाड के नाम पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे दिखाई देते हैं, गीता की धार्मिक सहिष्णुता, पंथ-सम्प्रदाय-निरपेक्षता का दर्शन और भी प्रासंगिक हो जाता है।

गीता द्वारा प्रतिपादित यह वर्णव्यवस्था परिवर्तित रूप में आज भी विद्यमान है। वर्तमान में सेवा-संवर्ग के प्रथम द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणियों (Class 1, 2, 3, 4) में विभाजन पर गीता की चातुर्वर्ण्यवस्था की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। गीता द्वारा गुण और योग्यता के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान का सन्देश आज के युग की माँग ही है। आधुनिक युग में, जबकि लोग अपने कर्तव्यों को भूलकर अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, गीता द्वारा अपने वर्णगत कर्मों (स्वधर्म) के पालन का आदेश और भी समीचीन हो जाता है। इसने अति प्राचीन काल से ही भारतीय समाज को एकता के सूत्र में बाँधे रखा और लोगों में कर्तव्य की चेतना जागृत किया। लोकसंग्रह, स्वधर्म तथा निष्काम कर्मयोग के सिद्धान्तों द्वारा जो स्वार्थ और परार्थ के समन्वय पर बल दिया गया उसे आज भी कौन-सा नैतिक दर्शन अस्वीकार करने का दुस्साहस करेगा?

श्रीकृष्ण की यह शिक्षा आज भी मूल्यवान है कि अपना हित चाहने वाले व्यक्ति को अपने संकीर्ण स्वार्थपरक आवेगों को जीतना होगा। काम, क्रोध, लोभ आदि पर विजय प्राप्त करने की शिक्षा आज भी लोकहितकारी है। पुनः, विभिन्न गीता के भाष्यकारों द्वारा समय-समय पर गीता पर लिखे गये भाष्यों की विविधता इसकी प्रासंगिकता का ही द्योतक है। तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के अमर शिक्षा की उपयोगिता आज भी उतनी है जितनी द्वापर युग में थी।

डा बिपिन पांडेय

अध्यक्ष विश्व पुरोहित परिषद

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