निर्बल के बलराम
बलराम परमात्मा के अवतार हैं, बल और कृषि के देवता हैं, कृष्ण के बड़े भाई है, हल उनके कंधे पर है। नारायणीयोपाख्यान में वर्णित व्यूहसिद्धान्त के अनुसार विष्णु के चार रूपों में दूसरा रूप संकर्षण (प्रकृति = आदितत्त्व) हैं। संकर्षण बलराम का अन्य नाम है जो कृष्ण के भाई थे । संकर्षण के बाद प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध का नाम आता है जो क्रमशः मनस् एवं अहंकार के प्रतीक तथा कृष्ण के पुत्र एवं पौत्र हैं । ये सभी देवता के रूप में पूजे जाते हैं । इन सबके आधार पर चतुर्व्यूह सिद्धान्त की रचना हुई है। जगन्नाथजी की त्रिमूर्ति में कृष्ण, सुभद्रा तथा बलराम तीनों साथ विराजमान हैं । इससे भी बलराम की पूजा का प्रसार व्यापक क्षेत्र में प्रमाणित होता है । सामान्यतया बलराम शेषनाग के अवतार माने जाते हैं ।
श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में भगवान के अवतारों का वर्णन किया गया है इसमें कहा गया है कि सृष्टि के आदि में भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थीं ।
अवतारवाद का उल्लेख उपनिषद में है –
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव
तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय ।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते
युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेति ॥ –
ऋग्वेद 6/47/18
अर्थात् जिस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट या विद्यमान एक ही अग्नि या तेज विभिन्न रूपों में उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप (समरूप) होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में उन्ही के प्रतिरूप होता है तथा उनके बाहर भी होता है।
भगवान कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । अवतारवाद का उल्लेख वेदके नारायण सूक्त में आता है-
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते ।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥
( नारायण सूक्त मंत्र 3 )
अर्थात वह परमात्मा आभ्यन्तर में विराजमान हैं । उत्पन्न न होनेवाला होकर भी नाना प्रकार से उत्पन्न होता है । संयमी पुरुष ही उसके स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं । सम्पूर्ण भूत उसी में सन्निविष्ट हैं ॥ भगवान् के उस विरारूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान्का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है । योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान् के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान् का वह रूप हजारों पैर, ‘जाँचें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और 5 हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणोंसे वह उल्लसित रहतें है यजुर्वेद में विराटपुरुष का वर्णन है-
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात ।
स भूमिं विश्वतो वृत्तत्यतिष्ठदशाङुलम्
शुक्लयजुर्वेद 2/1
अर्थात उस विराट पुरुष के हजारों सिर , हजारों आंखें और हजारों पैर हैं (हजारों का मतलब असंख्य है जो सार्वभौमिक अस्तित्व की सर्वव्यापकता की ओर संकेत करता है), वह विराट पुरुष सृष्टि को सभी तरफ से ढकता हुआ सर्वव्यापी है , और दस अंगुलियों द्वारा दर्शाये गये दस दिशाओं से परे फैला हुई है ।
गीता में अवतार के विषय मे कहा है कि –
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(गीता 4.8)
सत्मार्गमें स्थित सज्जनों की रक्षा करने के लिये दुष्कर्म करने वाले दुष्टों का नाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी प्रकार स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें अर्थात् प्रत्येक युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
भगवान् का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है-इसी से – सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है।
विराट पुरुष से चौबीस अवतार हुए 1-नारायण (विराट पुरुष), 2-ब्रह्मा, 3-सनक सनंदन सनातन सनत्कुमार, 4-वराहावतार 5-देवर्षि नारद, 6-नर-नारायण, 7-सांख्यशास्त्र प्रणेता कपिल मुनि, 8–दत्तात्रेय, 9-यज्ञ,10-ऋषभदेव, 11-पृथु, 12-मत्स्य,13-कच्छप, 14-धन्वंतरि, 15-मोहिनीरूप,16- नृसिंह,17- वामन,18-परशुराम,19- वेद व्यास, 20-मर्यादापुरुषोत्तम राम, 21-बलराम,22- श्रीकृष्ण, 23-बुद्धावतार,24-कल्कि
भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की षष्ठी को बलराम अवतार दिवस मनाते है इसे हलषष्ठी या ललही छठ भी कहते है, बलराम जयंती भगवान बलराम के जन्मोत्सव के रूप में मनाई जाती है।
निर्णय सिन्धु में लिखा गया है कि सप्तमी युक्त षष्ठी को हलषष्ठी व्रत करना चाहिए।
भाद्रपदकृष्णषष्ठी हलषष्ठी । सा सप्तमीयुतेति दिवोदास: (निर्णयसिन्धु द्वितीय परिच्छेद)
भगवान बलराम भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं और उन्हें सनातन हिंदू धर्म में शक्ति, साहस, और कृषि के देवता के रूप में पूजा जाता है। बलराम को हलधर भी कहा जाता है, क्योंकि वे हल (खेत जुताई का उपकरण) धारण करते हैं और कृषि कार्यों के संरक्षक माने जाते हैं। उनका व्यक्तित्व बेहद शक्तिशाली और वीरता से भरपूर है, और वे धर्म और सत्य के रक्षक हैं। बलराम जयंती के दिन भक्त व्रत रखते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं, और भगवान बलराम के गुणों का स्मरण करते हैं। इस दिन विशेष रूप से बलराम के जीवन से संबंधित कथाओं का पाठ किया जाता है और उनके आशीर्वाद की कामना की जाती है।
भगवान के उन्नीसवें अवतार में यदुवंश में बलराम जी और बीसवें अवतार श्रीकृष्ण जी हैं
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
राम कृष्णाविति भुवो भगवान हरद्भरम् ।। (श्रीमद्भागवत 3/23)
अर्थात उन्नीसवें और बीसवें अवतार में उन्होंने यदुवंश में बलराम आउट श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।
बलराम भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। वे दोनों ही सनातन हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण देवी-देवता हैं और विशेष रूप से वैष्णव परंपरा में पूजित होते हैं। भगवान बलराम और श्रीकृष्ण दोनों ने यदुवंश में जन्म लिया था। बलराम को भगवान विष्णु के शेषनाग का अवतार माना जाता है, जबकि श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार हैं। दोनों भाइयों ने साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण लीलाएँ कीं, जैसे मथुरा के अत्याचारी राजा कंस का अंत और महाभारत के युद्ध में अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं।बलराम का व्यक्तित्व बल और शक्ति का प्रतीक है, जबकि श्रीकृष्ण अपनी चतुराई और रणनीतिक कौशल के लिए जाने जाते हैं। बलराम के पास हल और गदा होते हैं, जो उनकी कृषि और शक्ति के प्रतीक माने जाते हैं। श्रीकृष्ण और बलराम की जोड़ी सनातन हिंदू धर्म में भाईचारे, प्रेम, और धर्म की रक्षा का प्रतीक मानी जाती है।
भगवान बलराम ने अपने जीवनकाल में कई महत्वपूर्ण संहार किए, जिनमें प्रमुख रूप से अधर्म और अत्याचारियों का अंत शामिल है।
प्रलंबासुर एक शक्तिशाली असुर था जिसे कंस ने गोकुल में श्रीकृष्ण और बलराम को मारने के लिए भेजा था। वह एक ग्वाले के रूप में भेष बदलकर ग्वालबालों के बीच शामिल हो गया। एक खेल के दौरान, प्रलंबासुर ने बलराम को अपने कंधों पर उठाकर ले जाने का प्रयास किया। बलराम ने उसकी चाल को भांप लिया और उसे अपनी शक्ति से मार डाला।द्विविद एक शक्तिशाली गोरिल्ला था, जो कंस के मित्र और नरकासुर के सहयोगी के रूप में जाना जाता था। उसने द्वारका और आस-पास के क्षेत्रों में उत्पात मचाया था। बलराम ने उसे मारकर उस क्षेत्र को उसके अत्याचार से मुक्त किया। गदासुर एक महान दानव था, जिसने मथुरा के आस-पास के क्षेत्रों में अत्याचार मचाया था। बलराम ने अपनी गदा से गदासुर का वध किया और उस क्षेत्र को भयमुक्त बनाया।
हलषष्ठी का व्रत स्त्रियां संतान की लंबी उम्र के लिए करती हैं, इस दिन महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है, व्रतचारिणी स्त्रियां महुए की दातून करती हैं, महुआ पलाश के पल्लव (पत्तों का समूह) एवं कुश में गाँठ लगाई जाती है, इस दिन व्रती स्त्रियां हल से जुते खेत मे नही जाती है, खेत मे बोये या रोपे हुए अन्न का सेवन नही करती हैं, इसलिए तालाब में उगने वाले लाल तिन्नी के चावल से बने भोजन ग्रहण करती हैं, भैस के दूध, दही और घी का प्रयोग होता है। गाय के दूध का प्रयोग वर्जित है ।
महाभारत युद्ध में बलराम कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध के साक्षी बने । विशेष रूप से, बलराम ने गदायुद्ध के समय दुर्योधन और भीम के बीच में निष्पक्षता बनाए रखने की कोशिश की थी। युद्ध के बाद, जब यादव कुल में आपसी संघर्ष के कारण विनाश हो रहा था, तब बलराम ने उस युद्ध में भाग नहीं लिया और ध्यान में लीन हो गए।बलराम को बल, साहस, और धर्म का प्रतीक माना जाता है, और उन्होंने अपने जीवन में अधर्म का विनाश करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए।
भगवान बलराम का अंत महाभारत युद्ध के बाद हुआ, जब यादव वंश का पतन शुरू हो गया था। महाभारत युद्ध के बाद यादवों के बीच आपसी संघर्ष और कलह बढ़ने लगी। इस स्थिति को भगवान श्रीकृष्ण ने पहले ही जान लिया था और उन्होंने यह भी समझा था कि अब यादव वंश का विनाश निकट है। मथुरा यदुवंश के आपसी संघर्ष और विनाश के समय, बलराम ने इस स्थिति को देखकर संसार से अपने प्रस्थान का निर्णय लिया। वे समुद्र तट पर ध्यान करने के लिए बैठ गए। ध्यान में लीन होते ही उन्होंने अपनी अंतिम लीला की। ऐसा कहा जाता है कि बलराम वास्तव में शेषनाग के अवतार थे, और जब उन्होंने ध्यान किया, तो एक विशाल श्वेत सर्प (शेषनाग) के रूप में उनका शरीर प्रकट हुआ और उन्होंने इस पृथ्वी को छोड़ दिया। शेषनाग समुद्र में समा गए, जो बलराम का इस संसार से प्रस्थान था। उनके इस अवतार का अंत इसी प्रकार हुआ, और वे अपने मूल स्वरूप में लौट गए। बलराम का यह अंत दिखाता है कि वे भी भगवान के एक अवतार थे, जो धरती पर अपने कर्तव्यों को पूरा करने के बाद अपने दिव्य धाम में लौट गए।
डा. बिपिन पांडेय
अध्यक्ष विश्व पुरोहित परिषद